कल उर्रिसा में बलांगीर जिले के तितिलागढ़ तहसील में पोमक्स स्टील कंपनी के डी जी ऍम की हत्या कुछ मजदूरों ने कर दी। वो जब खाना खाने के लिए प्लांट से निकले तो मजदूरों ने उन्हें घेर लिया और कुछ शरुआती कहा सुनी के बाद मजदूरों ने उनकी कार में आग लगा दी। उनका ड्राईवर तो कार से भाग निकला लेकिन वो नहीं निकल पाए और कार में ही उनकी म्रत्यु हो गयी ।
यह समाचार सुनने में तो साधारण लगता है लेकिन है नहीं, किसी की हत्या निः संदेह एक बर्बरीक कृत्य है लेकिन समस्या के जड़ में पहुचना जरूरी है, स्टील प्लांट के २५ मजदूरों को सितम्बर महीने में नौकरी से छटनी कर निकल दिया गया था, तब से वोह लगातार आन्दोलन कर रहे थे। उनके घरो के चुलेह ठन्डे पद गए थे, सरकारी मिशनरी हमेशा की तरह सोती रही और पूंजीपतियों का फेका खाना खाती रही। मीडिया जिसे मुन्नी की बदनामी की ज्यादा चिंता रहती है उसे मजदूरों की ख़बरें बासी लगती हैं, अरे भाई इस न्यूज़ में कुछ मसाला नहीं है, पब्लिक शीला के फिगर को लेकर ज्यादा फिक्रमंद है। जालीदार कपडे पहनने और जालीदार टोपी लगाने वोलो को यह लगता है की यह मजदूर और किसान हैं जो हमेशा ला एंड आर्डर की प्रॉब्लम पैदा कर देते हैं और ट्राफिक रोक देते हैं।
लेकिन बदलाव की इस आहट से औद्यगिक घराने सबसे ज्यादा चिंता में पड़ जाते हैं, वह तुरंत सरकार को धमकी देते हैं की जी डी पी गिर जायेगा, देश का विकास बाधित हो जायेगा। साल दर साल बालँस शीट में २००-३००% का मुनाफा ही इन्दुस्ट्री और देश को तरकी देता है और कुछ नहीं।
आज मजदूरों की हालत क्या है हम सभी जानते हैं। राजधानी दिल्ली के पास ही न जाने कितने उद्योग हैं जो मजदूरों को नौकरी तो देते हैं लेकिन उनके खून के बदले। वोह नूअन्तम मजदूरी भी देना नहीं चाहते अन्य सुविधाए तो दूर की बात हैं। कुछ बड़े कंपनी के वोर्केर्स को industry का आइना माने जाते है और राजनेता अपने घोटालों में लगे रहतें हैं, श्रमिक के पास न तो शक्ति हैं और न संसाधन की वह अदालतों में जिंदगी भर चलने वाली कानूनी प्रक्रिया को अपनाये, नक्सल वाद को बुद्धिजीवी वर्ग कोसता तो है लेकिन अपने सिस्टम में बदलाव के लिए कभी सड़क पर नहीं आता । ऐसे में मजदूरों की यह पर्तिक्रिया स्वाभाविक ही लगती है। बदलाव इस्थानिये स्तर से लेकर व्यापक स्तर तक आवश्यक है। वो चाहे फिर छोटी औद्योगिक इकाई हो या फिर बड़ी कंपनी, प्राइमरी स्कूल हो या उच्च शिक्षा संसथान सब जगह , नहीं तो कंपनियों को आने वाले सर्वहारा वर्ग की प्रतिक्रिया के लिए तैयार रहना चाहिए।
लेखक एक विश्वविद्यालय में librarian हें।
यह समाचार सुनने में तो साधारण लगता है लेकिन है नहीं, किसी की हत्या निः संदेह एक बर्बरीक कृत्य है लेकिन समस्या के जड़ में पहुचना जरूरी है, स्टील प्लांट के २५ मजदूरों को सितम्बर महीने में नौकरी से छटनी कर निकल दिया गया था, तब से वोह लगातार आन्दोलन कर रहे थे। उनके घरो के चुलेह ठन्डे पद गए थे, सरकारी मिशनरी हमेशा की तरह सोती रही और पूंजीपतियों का फेका खाना खाती रही। मीडिया जिसे मुन्नी की बदनामी की ज्यादा चिंता रहती है उसे मजदूरों की ख़बरें बासी लगती हैं, अरे भाई इस न्यूज़ में कुछ मसाला नहीं है, पब्लिक शीला के फिगर को लेकर ज्यादा फिक्रमंद है। जालीदार कपडे पहनने और जालीदार टोपी लगाने वोलो को यह लगता है की यह मजदूर और किसान हैं जो हमेशा ला एंड आर्डर की प्रॉब्लम पैदा कर देते हैं और ट्राफिक रोक देते हैं।
लेकिन बदलाव की इस आहट से औद्यगिक घराने सबसे ज्यादा चिंता में पड़ जाते हैं, वह तुरंत सरकार को धमकी देते हैं की जी डी पी गिर जायेगा, देश का विकास बाधित हो जायेगा। साल दर साल बालँस शीट में २००-३००% का मुनाफा ही इन्दुस्ट्री और देश को तरकी देता है और कुछ नहीं।
आज मजदूरों की हालत क्या है हम सभी जानते हैं। राजधानी दिल्ली के पास ही न जाने कितने उद्योग हैं जो मजदूरों को नौकरी तो देते हैं लेकिन उनके खून के बदले। वोह नूअन्तम मजदूरी भी देना नहीं चाहते अन्य सुविधाए तो दूर की बात हैं। कुछ बड़े कंपनी के वोर्केर्स को industry का आइना माने जाते है और राजनेता अपने घोटालों में लगे रहतें हैं, श्रमिक के पास न तो शक्ति हैं और न संसाधन की वह अदालतों में जिंदगी भर चलने वाली कानूनी प्रक्रिया को अपनाये, नक्सल वाद को बुद्धिजीवी वर्ग कोसता तो है लेकिन अपने सिस्टम में बदलाव के लिए कभी सड़क पर नहीं आता । ऐसे में मजदूरों की यह पर्तिक्रिया स्वाभाविक ही लगती है। बदलाव इस्थानिये स्तर से लेकर व्यापक स्तर तक आवश्यक है। वो चाहे फिर छोटी औद्योगिक इकाई हो या फिर बड़ी कंपनी, प्राइमरी स्कूल हो या उच्च शिक्षा संसथान सब जगह , नहीं तो कंपनियों को आने वाले सर्वहारा वर्ग की प्रतिक्रिया के लिए तैयार रहना चाहिए।
लेखक एक विश्वविद्यालय में librarian हें।
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